सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

हां, डर लगता है मुझे,

इन पांच विश्व विख्यात गुरुओं ने उजागर की जीवन की पांच महत्वपूर्ण सिख जिससे हम सफलता को प्राप्त कर सकते हैं।

डेल कार्नेगी के प्रसिद्ध पांच विचार हैं:

1. संघर्ष से बचो, जीत में परिपूर्णता को आदर्श बनाओ: उन्होंने सिखाया कि संघर्षों का सामना करना अवश्य है, लेकिन उन्हें उन्नति और सफलता की दिशा में परिपूर्णता की ओर ध्यान देना चाहिए।

2. लोगों को प्रभावित करने का योग्यता: कार्नेगी का मानना था कि यदि आप अपनी योग्यताओं और दिल से आत्म-समर्पण के साथ काम करते हैं, तो आप अपने आसपास के लोगों को प्रेरित करने की क्षमता विकसित कर सकते हैं।

3. दोस्तों और सहायकों की महत्ता: उन्होंने सिखाया कि सफलता में दोस्तों और सहायकों का समर्थन अत्यंत महत्वपूर्ण है।

4. समय को अच्छी तरह से प्रबंधित करें: उन्होंने महत्वपूर्णता के आधार पर काम करने की महत्ता को बताया और समय का महत्व समझाया।

5. संपत्ति का उपयोग समाज के लाभ के लिए: उन्होंने अपनी धनराशि का बड़ा हिस्सा सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक कार्यों में निवेश किया।

टोनी रॉबिन्स के प्रसिद्ध पांच विचार हैं:

1. उत्कृष्टता की खोज: रॉबिन्स का मानना था कि उत्कृष्टता की खोज में हमें निरंतर प्रयास करना चाहिए।

2. स्वयं नियंत्रण: उन्होंने सिखाया कि हमारे जीवन को हमें स्वयं नियंत्रित करना चाहिए, और हमारी सोच को प्रभावित करने वाले उन्हें नियंत्रित करना चाहिए।

3. सकारात्मक सोच: रॉबिन्स ने सकारात्मक सोच की महत्ता को बताया और यह सिखाया कि हमें हमारी सोच को सकारात्मक और उत्तेजक बनाना चाहिए।

4. संघर्ष का सामना करना: उन्होंने सिखाया कि हमें संघर्षों का सामना करना पड़ता है, लेकिन हमें इन्हें पार करने की आत्मा और उत्साह के साथ उन्नति करना चाहिए।

5. सामर्थ्य और सहायता: रॉबिन्स ने सामर्थ्य की महत्ता को बताया और समय-समय पर सहायता और समर्थन की भूमिका का महत्व भी उजागर किया।

लेस ब्राउन के प्रसिद्ध पांच विचार हैं:

1. स्वप्न को पूरा करने का साहस: ब्राउन ने सिखाया कि हमें अपने सपनों को पूरा करने के लिए साहस और प्रेरणा दिखानी चाहिए।

2. सकारात्मक सोच: उन्होंने सिखाया कि सकारात्मक सोच हमारे जीवन में सकारात्मक परिणामों को लाती है।

3. संघर्ष को स्वीकार करना: ब्राउन ने सिखाया कि संघर्ष हमारे जीवन का हिस्सा है और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।

4. विश्वास और आत्मविश्वास: उन्होंने बताया कि हमें अपने विश्वास और आत्मविश्वास में स्थिर रहना चाहिए, ताकि हम कठिनाईयों का सामना कर सकें।

5. सेवा और सहयोग: ब्राउन ने सेवा और सहयोग की महत्ता को बताया और समुदाय की सेवा में सहायक बनने की प्रेरणा दी।

एंथनी रॉबिन्स के प्रसिद्ध पांच विचार हैं:

1. स्वप्न के पीछे भागो: रॉबिन्स ने सिखाया कि हमें अपने सपनों की ओर अग्रसर होना चाहिए और उन्हें पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए।

2. स्वस्थ और सकारात्मक जीवनशैली: उन्होंने सिखाया कि हमें स्वस्थ और सकारात्मक जीवनशैली अपनानी चाहिए, जो हमें उत्साहित और प्रेरित करे।

3. स्वाधीनता की प्राप्ति: रॉबिन्स ने सिखाया कि हमें अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए साहसपूर्वक कठिनाईयों का सामना करना चाहिए।

4. संघर्ष को अवसर में बदलें: उन्होंने सिखाया कि हमें संघर्षों को अवसर में बदलना चाहिए, और उनसे सीखना चाहिए।

5. सेवा और उपकार: रॉबिन्स ने सेवा और उपकार की महत्वपूर्णता को बताया और समाज की सेवा में योगदान करने की प्रेरणा दी।

रोबर्ट कियोसाकी के प्रसिद्ध पांच विचार हैं:

1. वित्तीय शिक्षा की महत्ता: कियोसाकी ने सिखाया कि वित्तीय शिक्षा हमारे वित्तीय निर्णयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

2. निवेश के प्रकारों की समझ: उन्होंने बताया कि विभिन्न प्रकार के निवेशों की समझ और उनके लाभ-हानियों की समीक्षा करना आवश्यक है।

3. आत्मनिर्भरता की महत्ता: कियोसाकी ने स्वावलंबन की महत्ता को बताया और लोगों को स्वयं पर निर्भर रहने की प्रेरणा दी।

4. व्यापारिक समझदारी: उन्होंने बताया कि व्यावसायिक निर्णय लेते समय बुद्धिमत्ता का प्रयोग करना चाहिए।

5. संपत्ति के निर्माण: कियोसाकी ने संपत्ति निर्माण के महत्व को बताया और लोगों को संग्रहित धन को व्यायामी रूप से लगाने की सलाह दी।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः

 ( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )  संजय उवाच  तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥ संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा श्रीभगवानुवाच  कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा अर्जुन उवाच  कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के...

कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः

 (ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण) अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥ आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌॥ श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित हो...

विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः

  ( विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना )  अर्जुन उवाच मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌। यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥ अर्जुन बोले- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन अर्थात उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌॥ क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥ हे परमेश्वर! आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है, परन्तु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर्य-रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌॥ हे प्रभो! (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय तथा अन्तर्यामी रूप से शासन करने वाला होने से भगवान का नाम 'प्रभु' है) यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है- ऐसा आप मानते हैं, तो हे...

आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः

  ( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )   श्रीभगवानुवाच  अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥ श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव। न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन॥ हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥ योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जात...

अक्षर ब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः

 ( ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )   अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥ हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं श्रीभगवानुवाच अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥ श्री भगवान ने कहा- परम अक्षर 'ब्रह्म' है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा 'अध्यात्म' नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह 'कर्म' नाम से कहा गया है अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌। अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, ह...

गुणत्रयविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः

  (ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत्‌ की उत्पत्ति)   श्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌। यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥ श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।  सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥ इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌।  सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥ हे अर्जुन! मेरी महत्‌-ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥ हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर...

क्षमा, निडरता और त्याग को क्यों कहते हैं जीवन का अमृत।

क्षमा, निडरता और त्याग को क्यों कहते हैं जीवन का अमृत।  क्षमा, हमारे अंदर उन भावनाओं को उत्पन्न करती है, जिससे हम दूसरों की भावनाओं को, मजबूरीओं को समझ सकते हैं। क्षमा, हमें दूसरों को समझने की भावना या कह सकते हैं, क्षमता प्रदान करती है। निडरता, हमें नीति, न्याय, धर्म पर अडिग रहते हुए हमें सत्य निष्ठ, सत्य पारायण बने रहने की क्षमता प्रदान करता है। त्याग, जब हम किसी कार्य में सफल हो जाते हैं तो, हमारे अंदर अहंकार, अहम और न जाने कितने विकार उत्पन्न होते हैं। त्याग, उन विकारों को खत्म करने की क्षमता देता है, समझ प्रदान करता है। जब हम किसी कार्य में नाकाम हो जाते हैं, असफल हो जाते हैं, तब हमारे अंदर भय, डर, क्रोध, लोग और न जाने कितने प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं, उन सारे विकारों से त्याग हमारी रक्षा कर लेता है। इन सारे विकारों की भूल भुलैया से बाहर निकलने की समझ और शक्ति प्रदान करता है। एक छोटे से वाक्य में अगर कहना चाहूं तो, वह यह हो सकता है कि, त्याग हम मनुष्यों के लिए रिसेट का बटन है। त्याग ही वह गुण है, जो हमें, हमारे जीवन को रिसेट करता है। और नई शुरुआत करने की प्रेरणा देता ह...

मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः

  (त्याग का विषय)   अर्जुन उवाच  सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌। त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥ अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ श्रीभगवानुवाच काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः। सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥ श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः। यज्...

प्रेम: जीवन का अद्वितीय एहसास

प्रेम: जीवन का अद्वितीय एहसास प्रेम एक ऐसी अवस्था है जो हमें बाहरी दुनिया के परिवर्तनों से परे ले जाती है। यह एक अचल अवस्था है जो भौतिक और आत्मिक दोनों स्तरों पर हमारे अनुभवों को समृद्ध करती है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम प्रेम के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि प्रेम कैसे हमारे जीवन को आकार देता है। प्रेम की अचलता प्रेम एक ऐसी भावना है जो समय के साथ नहीं बदलती। यह एक सत्य है जिसे हमारी अंतरात्मा ने स्वीकार किया है। भले ही बाहरी दुनिया में सब कुछ परिवर्तित हो जाए, प्रेम की भावना स्थिर रहती है। यह हमें दुख के समय में भी सुख की अनुभूति देता है और जब कुछ नहीं होता, तब भी सब कुछ होने का आभास कराता है। प्रेम का सुरक्षा कवच प्रेम एक सुरक्षा कवच की तरह है जो हमें बाहरी संघर्षों से बचाता है। यह हमें आत्मिक तौर पर खुश और शांत रखता है, चाहे बाहरी परिस्थितियाँ कैसी भी हों। प्रेम के इस सुरक्षा कवच के कारण, बाहरी तौर पर चीजें परिवर्तित होती रहेंगी, लेकिन आंतरिक तौर पर जो सुख, संतोष, और शांति है, वह सदा बनी रहेगी। प्रेम की निस्वार्थता प्रेम एक निस्वार्थ इच्छा है। यह एक ऐसा ...

विषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।

  धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।  मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥ धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय उवाच दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।  आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌॥ संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।  व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।  युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥ धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌।  पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः॥ युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌। सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥ इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और...