सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

हां, डर लगता है मुझे,

क्षमा भाव, माफ कर देना एक सुखी जीवन के लिए अमृत के समान है

क्या आपको पता है क्षमा कर देना माफ कर देना किसी को कितना फायदेमंद होता है खुद के लिए? मेरा विश्वास है इन फायदों को जानकर आप क्षमा के भाव को जरूर अपने अंदर स्थापित और स्थिर करेंगे।

1. स्वस्थ मनोवैज्ञानिक लाभ: क्षमा से दिल को सुकून मिलता है और तनाव कम होता है।
क्षमा करने से दिल को सुकून मिलता है और तनाव कम होता है क्योंकि यह मन को शांति देता है। जब हम किसी को क्षमा करते हैं, तो हम अपने मन को उस घटना या व्यक्ति से मुक्त कर देते हैं। और उससे मुक्त हो जाते हैं। इससे हमारा मानसिक दबाव कम होता है और हम अपने आसपास के माहौल को भी शांतिपूर्ण महसूस करते हैं। यह हमें अधिक सकारात्मक सोचने के लिए प्रेरित करता है और मानसिक स्थिति में सुधार करता है।

2. रिश्तों को मजबूत करना: क्षमा से रिश्ते मधुर होते हैं और उन्हें मजबूती मिलती है।
क्षमा करने से रिश्ते मधुर होते हैं क्योंकि इससे हम दूसरों की गलतियों को स्वीकार करते हैं और उन्हें माफ कर देते हैं। जब हम किसी को क्षमा करते हैं, तो हम उन्हें एक नई आरंभ की अवस्था देते हैं, जिसमें दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ सहयोग और समर्थन करते हैं। इससे रिश्ते गहरे और मजबूत होते हैं, क्योंकि संवाद और सम्मान की भावना बढ़ती है। इससे रिश्तों में विश्वास और समर्थन की भावना बढ़ती है और यह उन्हें मजबूत बनाता है।


3. शारीरिक स्वास्थ्य का लाभ: क्रोध को कम करने से शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता है।

क्रोध को कम करने से शारीरिक स्वास्थ्य में बेहतरी होती है क्योंकि क्रोध अधिक मात्रा में उत्पन्न होने से हमारे शारीरिक सिस्टम पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। यह दबाव अधिक तनाव, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है। 

क्रोध के दौरान शारीरिक प्रतिक्रिया में बदलाव होता है, जिससे रक्तचालन, हृदय की धड़कन, और श्वसन में परिवर्तन होता है। इसके अतिरिक्त, लंबे समय तक क्रोध में रहने से शारीरिक रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है। 

क्रोध को कम करने से, शारीरिक तनाव कम होता है और शारीरिक संतुलन सुधारता है। यह हमारे शारीरिक प्रणाली को स्वस्थ रखने में मदद करता है और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से बचाव करने में सहायक होता है।

4. स्वयं की शांति: क्षमा से आपको अपने अंदर की शांति मिलती है और आप खुद को बेहतर महसूस करते हैं।

क्षमा से, हम अपने मन की घावों को भले ही स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन हम उन घावों पर अधिक विचार नहीं करते हैं। यह हमें शांति और संतुष्टि की अनुभूति कराता है क्योंकि हम बुरे अनुभवों या गुस्से के पीछे नहीं पड़ते। इससे हमारा मन शांत रहता है और हम अपने आत्मा के करीब महसूस करते हैं। 

यह हमें स्वयं को बेहतर और प्रेमपूर्ण महसूस कराता है, क्योंकि हम खुद को अपने अंदर की शांति के साथ जोड़ते हैं। इससे हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है और हम अपने जीवन में अधिक खुशहाली का अनुभव करते हैं।

5. बेहतर निर्णय: क्षमा करने से आपकी निर्णय शक्ति में सुधार होता है और आप समस्याओं को समझने में अधिक सक्षम होते हैं।
क्षमा करने से हमारी निर्णय शक्ति में सुधार होता है क्योंकि यह हमें अन्यों के पक्ष को समझने और सही तरीके से प्रतिक्रिया करने की क्षमता प्रदान करता है। जब हम किसी को क्षमा करते हैं, तो हमें उनके संदेह, स्थिति और भावनाओं को समझने की आवश्यकता होती है। 

इससे हम समस्याओं को और समझने में सक्षम होते हैं और सही निर्णय लेने में मदद मिलती है। हम अपने विकल्पों को अधिक विश्वसनीयता के साथ विचार करते हैं और समस्याओं का सही समाधान निकालने की क्षमता में सुधार होता है। इससे हम अपने जीवन में और बेहतर निर्णय लेने में सक्षम होते हैं और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में सफल होते हैं।

6. समाज में समर्थन: क्षमा से समाज में विश्वास और समर्थन मिलता है।

क्षमा करने से हम अपने समाज में विश्वास और समर्थन की भावना को बढ़ाते हैं। जब हम किसी को क्षमा करते हैं, तो हम उस व्यक्ति में विश्वास दिखाते हैं कि वह अपनी गलती से सीखेगा और सुधरेगा। इससे हमारे बीच में एक संतुलित और सहयोगपूर्ण माहौल बनता है। 

विश्वास और समर्थन के भावनात्मक माहौल में, समाज के अन्य सदस्य हमें समर्थन प्रदान करते हैं और हमारे साथ होते हैं जब हम उन्हें आवश्यकता होती है। इससे हम अपने समाज में एक संबलित और सुरक्षित महसूस करते हैं और समाज के अन्य सदस्यों के साथ एक संबंध और मजबूत होता है।

7. सकारात्मक भावनाएं: क्षमा से सकारात्मकता का माहौल बनता है जो समाज में सहयोग को बढ़ाता है।

क्षमा करने से हम सकारात्मक भावनाओं को बढ़ाते हैं जो समाज में सहयोग को बढ़ाता है। जब हम किसी को क्षमा करते हैं, तो हम अपनी भावनाओं को संजीवित करते हैं और उन्हें प्रकारित करते हैं कि हम समाज में एक सहायक और समर्थ बनने के लिए तैयार हैं। 

इससे हमारे आसपास का माहौल सकारात्मक बनता है, जिसमें लोग आपस में सहयोग और समर्थन की भावना रखते हैं। यह समाज को एकता और सामर्थ्य का भाव देता है, जिससे लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं और साथ में प्रगति करते हैं। इससे समाज में सहयोग और सामर्थ्य का भाव बढ़ता है और लोगों के बीच एक संबलित और समृद्ध माहौल बनता है।

8. स्वास्थ्यपूर्ण जीवन: क्रोध को कम करने से आपका हृदय स्वस्थ रहता है और आपका जीवन खुशहाल होता है।

क्रोध को कम करने से हमारा हृदय स्वस्थ रहता है और हमारा जीवन खुशहाल होता है। अधिक क्रोध या उसमें लंबे समय तक रहने से हमारा हृदय अत्यधिक दबाव का सामना करता है, जो हृदय रोगों के लिए एक मुख्य कारण होता है। 

क्रोध को कम करने से, हमारा रक्तचाप सामान्य होता है और हृदय की समस्याओं का खतरा कम हो जाता है। साथ ही, यह हमें अधिक सकारात्मक और संतुष्ट जीवन जीने में मदद करता है। 

जब हम क्रोध को नियंत्रित करते हैं, तो हम अपने जीवन को शांति और समृद्धि से भर देते हैं और खुशहाली का अनुभव करते हैं। इससे हमारा जीवन स्वस्थ्यपूर्ण और खुशहाल रहता है।

9. बेहतर सम्बन्ध: क्षमा से सम्बन्ध बेहतर होते हैं और संबंधों में विश्वास बढ़ता है।

क्षमा करने से हमारे संबंध बेहतर होते हैं क्योंकि यह हमें दूसरों की गलतियों को स्वीकार करने और उन्हें माफ कर देने की क्षमता प्रदान करता है। जब हम किसी को क्षमा करते हैं, तो हमारे संबंधों में विश्वास और समर्थन की भावना बढ़ती है।

यह संबंधों को मधुर बनाता है, जिससे दोनों पक्ष एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं और सहयोगपूर्ण भावना बढ़ती है। इससे हमारे संबंध में विश्वास बढ़ता है और हम अपने संबंधों को और भी मजबूत बनाने के लिए तैयार होते हैं। इससे हम संबंधों में संतुलित और सहयोगपूर्ण माहौल बनाते हैं, जो हमें और हमारे पारिवारिक संबंधों को अधिक खुशहाल और खुशीयों से भर देता है।

10. आत्मविश्वास: क्षमा से आपका आत्मविश्वास बढ़ता है और आप अपने अच्छे गुणों को और भी अधिक स्वीकार करने लगते हैं।
क्षमा करने से हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है क्योंकि यह हमें अपने अच्छे और बुरे पहलुओं को स्वीकार करने में मदद करता है। जब हम किसी को क्षमा करते हैं, तो हम खुद को भी क्षमा करने के लिए सामर्थ्य प्राप्त करते हैं।

इससे हम अपने अच्छे गुणों को और भी अधिक स्वीकार करने लगते हैं और अपने कमजोरियों पर काम करने के लिए प्रेरित होते हैं। यह हमें अपनी स्वाभाविक क्षमताओं को बेहतर ढंग से समझने और स्वीकार करने में मदद करता है, जिससे हमारा आत्मविश्वास मजबूत होता है।

इससे हम अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करने में सहायक होता है, क्योंकि हम खुद पर विश्वास करते हैं और अपने क्षमताओं का उपयोग करते हैं।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः

 ( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )  संजय उवाच  तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥ संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा श्रीभगवानुवाच  कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा अर्जुन उवाच  कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के...

कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः

 (ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण) अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥ आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌॥ श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित हो...

विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः

  ( विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना )  अर्जुन उवाच मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌। यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥ अर्जुन बोले- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन अर्थात उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌॥ क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥ हे परमेश्वर! आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है, परन्तु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर्य-रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌॥ हे प्रभो! (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय तथा अन्तर्यामी रूप से शासन करने वाला होने से भगवान का नाम 'प्रभु' है) यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है- ऐसा आप मानते हैं, तो हे...

आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः

  ( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )   श्रीभगवानुवाच  अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥ श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव। न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन॥ हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥ योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जात...

अक्षर ब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः

 ( ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )   अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥ हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं श्रीभगवानुवाच अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥ श्री भगवान ने कहा- परम अक्षर 'ब्रह्म' है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा 'अध्यात्म' नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह 'कर्म' नाम से कहा गया है अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌। अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, ह...

गुणत्रयविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः

  (ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत्‌ की उत्पत्ति)   श्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌। यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥ श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।  सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥ इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌।  सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥ हे अर्जुन! मेरी महत्‌-ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥ हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर...

क्षमा, निडरता और त्याग को क्यों कहते हैं जीवन का अमृत।

क्षमा, निडरता और त्याग को क्यों कहते हैं जीवन का अमृत।  क्षमा, हमारे अंदर उन भावनाओं को उत्पन्न करती है, जिससे हम दूसरों की भावनाओं को, मजबूरीओं को समझ सकते हैं। क्षमा, हमें दूसरों को समझने की भावना या कह सकते हैं, क्षमता प्रदान करती है। निडरता, हमें नीति, न्याय, धर्म पर अडिग रहते हुए हमें सत्य निष्ठ, सत्य पारायण बने रहने की क्षमता प्रदान करता है। त्याग, जब हम किसी कार्य में सफल हो जाते हैं तो, हमारे अंदर अहंकार, अहम और न जाने कितने विकार उत्पन्न होते हैं। त्याग, उन विकारों को खत्म करने की क्षमता देता है, समझ प्रदान करता है। जब हम किसी कार्य में नाकाम हो जाते हैं, असफल हो जाते हैं, तब हमारे अंदर भय, डर, क्रोध, लोग और न जाने कितने प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं, उन सारे विकारों से त्याग हमारी रक्षा कर लेता है। इन सारे विकारों की भूल भुलैया से बाहर निकलने की समझ और शक्ति प्रदान करता है। एक छोटे से वाक्य में अगर कहना चाहूं तो, वह यह हो सकता है कि, त्याग हम मनुष्यों के लिए रिसेट का बटन है। त्याग ही वह गुण है, जो हमें, हमारे जीवन को रिसेट करता है। और नई शुरुआत करने की प्रेरणा देता ह...

मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः

  (त्याग का विषय)   अर्जुन उवाच  सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌। त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥ अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ श्रीभगवानुवाच काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः। सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥ श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः। यज्...

प्रेम: जीवन का अद्वितीय एहसास

प्रेम: जीवन का अद्वितीय एहसास प्रेम एक ऐसी अवस्था है जो हमें बाहरी दुनिया के परिवर्तनों से परे ले जाती है। यह एक अचल अवस्था है जो भौतिक और आत्मिक दोनों स्तरों पर हमारे अनुभवों को समृद्ध करती है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम प्रेम के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि प्रेम कैसे हमारे जीवन को आकार देता है। प्रेम की अचलता प्रेम एक ऐसी भावना है जो समय के साथ नहीं बदलती। यह एक सत्य है जिसे हमारी अंतरात्मा ने स्वीकार किया है। भले ही बाहरी दुनिया में सब कुछ परिवर्तित हो जाए, प्रेम की भावना स्थिर रहती है। यह हमें दुख के समय में भी सुख की अनुभूति देता है और जब कुछ नहीं होता, तब भी सब कुछ होने का आभास कराता है। प्रेम का सुरक्षा कवच प्रेम एक सुरक्षा कवच की तरह है जो हमें बाहरी संघर्षों से बचाता है। यह हमें आत्मिक तौर पर खुश और शांत रखता है, चाहे बाहरी परिस्थितियाँ कैसी भी हों। प्रेम के इस सुरक्षा कवच के कारण, बाहरी तौर पर चीजें परिवर्तित होती रहेंगी, लेकिन आंतरिक तौर पर जो सुख, संतोष, और शांति है, वह सदा बनी रहेगी। प्रेम की निस्वार्थता प्रेम एक निस्वार्थ इच्छा है। यह एक ऐसा ...

विषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।

  धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।  मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥ धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय उवाच दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।  आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌॥ संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।  व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।  युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥ धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌।  पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः॥ युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌। सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥ इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और...