सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

हां, डर लगता है मुझे,

Understanding the Dilemma: Why People Engage in Wrong Actions

 

Understanding the Dilemma: Why People Engage in Wrong Actions

Introduction:


In our journey through life, we often encounter situations where individuals, despite knowing the difference between right and wrong, choose the latter. This blog post aims to delve into the complexities of human behavior and explore why some individuals engage in wrong or morally questionable actions.


      1:   Early Moral Education Matters:


Initiating our exploration at the very foundation, early childhood plays a crucial role in shaping an individual's moral compass. Parents and guardians bear the responsibility of instilling a sense of justice, morality, and ethics in their children. By imparting teachings of righteousness and leading by example, children are better equipped to make ethical decisions later in life.


      2:   Government's Role in Shaping Society:


Governments play a pivotal role in fostering a just and ethical society. Policies that prioritize education for children and establish frameworks for employment and appointments contribute significantly to creating an environment conducive to moral growth. A society with well-defined ethical standards encourages individuals to align their actions with the principles of justice and fairness.


      3:   The Impact of Teachers and Education Systems:


The education system, particularly the role of teachers, plays a vital part in shaping the moral fabric of individuals. A curriculum that emphasizes not only academic knowledge but also imparts moral values helps in producing responsible citizens. Teachers, acting as mentors, can guide students towards a path of ethical decision-making, emphasizing the importance of living as humane beings.


      4:   Respect for Elders and Helping the Vulnerable:


Fostering respect for elders and instilling a sense of responsibility towards helping the vulnerable is essential. Parents should lead by example, teaching their children to respect the elderly and extend a helping hand to those in need. This creates a society where empathy and compassion thrive, reducing the likelihood of individuals engaging in morally wrong actions.


      5:   Individual Responsibility in Society:


Every individual holds a unique position within society, and with that comes a responsibility to act ethically. Recognizing one's duty towards society and executing it with complete honesty is crucial. This responsibility extends beyond personal gain, urging individuals to consider the collective well-being of the community.


Conclusion:


Understanding why people commit wrong actions is a complex endeavor, often influenced by a combination of societal, educational, and personal factors. By focusing on early moral education, the role of government and education systems, respect for elders, and individual responsibility, we can collectively strive to create a society where individuals are less inclined to engage in morally wrong actions. Through these concerted efforts, we can work towards a world guided by principles of justice, empathy, and ethical decision-making.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः

 ( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )  संजय उवाच  तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥ संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा श्रीभगवानुवाच  कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा अर्जुन उवाच  कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के...

कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः

 (ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण) अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥ आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌॥ श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित हो...

गुणत्रयविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः

  (ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत्‌ की उत्पत्ति)   श्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌। यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥ श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।  सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥ इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌।  सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥ हे अर्जुन! मेरी महत्‌-ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥ हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर...

क्षमा, निडरता और त्याग को क्यों कहते हैं जीवन का अमृत।

क्षमा, निडरता और त्याग को क्यों कहते हैं जीवन का अमृत।  क्षमा, हमारे अंदर उन भावनाओं को उत्पन्न करती है, जिससे हम दूसरों की भावनाओं को, मजबूरीओं को समझ सकते हैं। क्षमा, हमें दूसरों को समझने की भावना या कह सकते हैं, क्षमता प्रदान करती है। निडरता, हमें नीति, न्याय, धर्म पर अडिग रहते हुए हमें सत्य निष्ठ, सत्य पारायण बने रहने की क्षमता प्रदान करता है। त्याग, जब हम किसी कार्य में सफल हो जाते हैं तो, हमारे अंदर अहंकार, अहम और न जाने कितने विकार उत्पन्न होते हैं। त्याग, उन विकारों को खत्म करने की क्षमता देता है, समझ प्रदान करता है। जब हम किसी कार्य में नाकाम हो जाते हैं, असफल हो जाते हैं, तब हमारे अंदर भय, डर, क्रोध, लोग और न जाने कितने प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं, उन सारे विकारों से त्याग हमारी रक्षा कर लेता है। इन सारे विकारों की भूल भुलैया से बाहर निकलने की समझ और शक्ति प्रदान करता है। एक छोटे से वाक्य में अगर कहना चाहूं तो, वह यह हो सकता है कि, त्याग हम मनुष्यों के लिए रिसेट का बटन है। त्याग ही वह गुण है, जो हमें, हमारे जीवन को रिसेट करता है। और नई शुरुआत करने की प्रेरणा देता ह...

हां, डर लगता है मुझे,

हां, डर लगता है मुझे, उन झुर्रियों वाले हाथों को देखकर, जो आशा की भीख मांगते हैं। हां, डर लगता है मुझे, उन निर्दोष आंखों को देखकर, जो सहारे की तलाश में हैं। हां, डर लगता है मुझे, मेरी माँ के सपनों को अधूरा छोड़ देने से। हां, डर लगता है मुझे, उन छोटे हाथों को थामे, सही मार्ग न दिखा पाने से। हां, डरता हूँ मैं, झूठ के बोझ तले दबने से, और अनैतिकता के रास्ते पर चलने से। हां, डरता हूँ मैं, मेरे पिता की आशाओं पर खरा न उतर पाने से। हां, डरता हूँ मैं, जीवन को यूँ ही व्यर्थ गवां देने से। हां, डरता हूँ मैं, किसी के काम न आ पाने से।

विषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।

  धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।  मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥ धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय उवाच दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।  आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌॥ संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।  व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।  युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥ धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌।  पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः॥ युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌। सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥ इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और...

जब इंसान का विनाश होने वाला होता है तो वहां कौन-कौन से कार्य करता है?

जब इंसान का विनाश होने वाला होता है तो वहां कौन-कौन से कार्य करता है? जब किसी व्यक्ति का विनाश निकट होता है, तो अक्सर उसके व्यवहार में कुछ परिवर्तन देखे जा सकते हैं। आचार्य चाणक्य के अनुसार, जब किसी व्यक्ति का बुरा समय आने वाला होता है, तो वह अपने हित की बातें भी नहीं सुनता है³। ऐसे व्यक्ति के विनाश के कुछ संकेत निम्नलिखित हो सकते हैं:  व्यक्ति अहंकारी हो जाता है और अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है।  व्यक्ति अनुशासन और नियमों का पालन नहीं करता।  व्यक्ति ज्ञान की उपेक्षा करता है और सीखने की इच्छा नहीं रखता।  व्यक्ति दूसरों के प्रति असम्मानजनक और दुर्व्यवहार करता है।  व्यक्ति धर्म और नैतिकता के मार्ग से भटक जाता है। ये संकेत व्यक्ति के आंतरिक और बाहरी जीवन में उसके विनाश की ओर अग्रसर होने का सूचक हो सकते हैं। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने आचरण को सदैव सकारात्मक और धर्मिक बनाए रखें। आत्म-चिंतन और आत्म-सुधार की प्रक्रिया में रहकर हम अपने जीवन को उत्तम दिशा में ले जा सकते हैं।  आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, जब किसी व्यक्ति का पतन होने वाला होता है, तो ...

अक्षर ब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः

 ( ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )   अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥ हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं श्रीभगवानुवाच अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥ श्री भगवान ने कहा- परम अक्षर 'ब्रह्म' है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा 'अध्यात्म' नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह 'कर्म' नाम से कहा गया है अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌। अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, ह...

ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः

  ( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय ) श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।  विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌॥ श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥ हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌॥ तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है अर्जुन उवाच अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥ अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि मे...

दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः

  (फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन)   श्रीभगवानुवाच  अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌॥ श्री भगवान बोले- भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति (परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम 'ज्ञानयोगव्यवस्थिति' समझना चाहिए) और सात्त्विक दान (गीता अध्याय 17 श्लोक 20 में जिसका विस्तार किया है), इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान्‌ के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥ मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण (अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों म...