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क्या अंतर है साहस और शक्ति में? आध्यात्मिक तौर पर, साहस आंतरिक शक्ति है। जो किसी भी कार्य को करने के लिए हमें प्रेरित करती है। उस कार्य में कितनी भी कठिनाइयां आए, उस कार्य को करने की, उस कार्य को पूरा करने की मानसिक शक्ति प्रदान करती है। साहस और शक्ति दोनों ही महत्वपूर्ण गुण हैं, लेकिन इनमें अंतर है।  साहस का अर्थ है किसी भी प्रकार की चुनौती या खतरे का सामना करने की मानसिक या आत्मिक ताकत। यह अनिश्चितता, डर या कठिनाई के बावजूद सही काम करने की क्षमता है।  शक्ति आमतौर पर शारीरिक या मानसिक ताकत को दर्शाती है, जैसे किसी भारी वस्तु को उठाने की क्षमता या किसी कठिन समस्या को हल करने की बुद्धिमत्ता। संक्षेप में, साहस वह गुण है जो हमें डर का सामना करने और चुनौतियों के बावजूद आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, जबकि शक्ति वह क्षमता है जो हमें शारीरिक या मानसिक रूप से कठिन कार्यों को पूरा करने में सक्षम बनाती है।  आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, आंतरिक शक्ति वह ऊर्जा है जो हमें अंदर से प्रेरित करती है और हमें चुनौतियों का सामना करने और उन्हें पार करने की शक्ति देती है। यह शक्ति हमें न केवल सोचने ...

ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः

  ( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय ) श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।  विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌॥ श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥ हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌॥ तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है अर्जुन उवाच अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥ अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि मे...

कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः

 (ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण) अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥ आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌॥ श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित हो...

दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः

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कैसा होता है वह प्रेम, वह प्रेम संबंध जो सुख, शांति और ना खत्म होने वाला साथ प्रदान करता है?

कैसा होता है वह प्रेम, वह प्रेम संबंध जो सुख, शांति और ना खत्म होने वाला साथ प्रदान करता है? मैं इस बात से इनकार नहीं करता की, प्रेम, प्राप्त करने की भावना है, हासिल करने की भावना है। जब प्रेम आपको भक्ति और समर्पण के रूप में प्राप्त होता है, तो वह ना खत्म होने वाले सुख, शांति और समृद्धि को प्राप्त कराता है। वही प्रेम केवल इच्छापूर्ति और विकारों से उत्पन्न हुआ हो तो, वह दुख अशांति और अत्यंत भयानक पीरा का कारण बनता है।  जब भी हम किसी के प्रति आकर्षित होते हैं, एक बात का ध्यान रखिएगा, प्रेम की शुरुआत आकर्षण यानी इंटरेस्ट से होती है। प्रेम कैसा प्रतिफल देगा, उसका स्वरूप कैसा होगा, उसका हमारे जीवन पर हमारे सुख, शांति और समृद्धि पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह सब कुछ निर्भर करता है, उस व्यक्ति के व्यक्तित्व और विचारों पर। अगर व्यक्ति शांत स्वभाव का, सत्य निष्ठ, त्यागी, धर्मात्मा, योगी या देव तुल्य है तो उसका प्रेम त्याग, समर्पण, और सम्मान के रूप में होगा, इसके प्रतिफल के रूप में, इसके प्रभाव के रूप में हम सुख, शांति और ना खत्म होने वाले आनंद को प्राप्त होंगे। इस तरह का प्रेम उस इंसान को धरती पर...

सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः

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आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः

  ( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )   श्रीभगवानुवाच  अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥ श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव। न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन॥ हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥ योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जात...

विषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।

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कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः

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