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पुरुषार्थ और कार्य में क्या अंतर है? पुरुषार्थ को पुरुषार्थ क्यों कहते हैं?
पुरुषार्थ शब्द किसी लिंग विशेष के लिए नहीं, हालांकि उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता है। पुरुषार्थ अर्थात वह कार्य जो शास्त्रों के अनुकूल अर्थात अनुसार हो, जिसमें नीति, नियम, धर्म का पालन हो, इसका उद्देश्य सात्विक हो, और उससे उत्पन्न होने वाला फल सिर्फ उसे व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि उसके परिवार, उसके समाज, और उसके देश के लिए भी लाभकारी हो। ऐसे कार्यों को पुरुषार्थ कहते हैं।
पुरुषार्थ का अर्थ वास्तव में उन कार्यों से है जो न केवल व्यक्तिगत उन्नति के लिए होते हैं, बल्कि समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए भी होते हैं। यह धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के चार पुरुषार्थों के माध्यम से व्यक्त होता है, जो एक संतुलित और सार्थक जीवन के लिए आवश्यक हैं।
धर्म का पालन करते हुए अर्थ कमाना, उचित ढंग से काम की पूर्ति करना, और अंततः मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास करना, यही पुरुषार्थ की अवधारणा है। इसमें नीति और नियमों का पालन करना, सात्विक जीवनशैली अपनाना, और ऐसे कार्य करना शामिल है जिनसे सभी को लाभ हो।
इस दृष्टिकोण से, पुरुषार्थ एक व्यक्ति के जीवन के उद्देश्यों को निर्धारित करता है और समाज में उसकी भूमिका को भी परिभाषित करता है। यह व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के बीच संतुलन स्थापित करता है और एक ऐसे समाज की रचना करता है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति के कार्य से सभी को लाभ हो।
जिनका स्वभाव महान होता है, जिनका चरित्र निर्मल होता है, जो स्वभाव से ही क्षमावन, निडर और त्यागी होते हैं। उनके कर्म सदैव पुरुषार्थ कहलाते हैं। क्योंकि कार्य और पुरुषार्थ में अंतर है। कार्य जो हर मनुष्य अपने लिए करता है, अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए करता है, अपने शरीर पालन के लिए करता है। जबकि पुरुषार्थ हमेशा ही निस्वार्थ भाव से, दूसरों के लिए किया जाता है। वह दूसरे हमारा परिवार भी हो सकते है, हमारा समाज भी हो सकता है, और हमारा देश भी हो सकता है।
जिनका स्वभाव महान होता है, जिनका चरित्र निर्मल होता है, जो स्वभाव से ही क्षमाशील, निडर और त्यागी होते हैं, उनके कर्म वास्तव में पुरुषार्थ कहलाते हैं। यह सही है कि कार्य और पुरुषार्थ में एक महत्वपूर्ण अंतर होता है।
कार्य, वे होते हैं जो हर मनुष्य अपने लिए, अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए, और अपने दैनिक जीवन के पालन के लिए करता है। वहीं, पुरुषार्थ वे कर्म होते हैं जो निस्वार्थ भाव से, दूसरों के लिए, समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए किए जाते हैं। ये कर्म न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि उसके परिवार, समाज, और देश के लिए भी लाभकारी होते हैं।
पुरुषार्थ की यह अवधारणा भारतीय दर्शन में गहराई से निहित है और यह हमें यह सिखाती है कि जीवन का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत लाभ नहीं बल्कि समग्र कल्याण में होना चाहिए। ऐसे कर्म जो उच्च आदर्शों और मूल्यों पर आधारित होते हैं, वे हमें एक उच्चतर जीवन की ओर ले जाते हैं और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सहायक होते हैं।
कार्य केवल मैटेरियलिस्टिक होते हैं। जबकि पुरुषार्थ मैटेरियलिस्टिक प्लस आध्यात्मिक भी होते हैं। कार्य से उत्पन्न फल केवल देह पोषण या मैटेरियलिस्टिक पोषण में काम लगते हैं। जबकि पुरुषार्थ से उत्पन्न हुआ फल देह पोषण के साथ-साथ हमारी अंतर आत्मा को भी पोषित करता है, आत्म संतोष, शांति जैसे भाव माध्यम से। पुरुषार्थ से उत्पन्न हुआ फल व्यक्ति के साथ-साथ उसके परिवार, समाज और देश के लिए भी हितकारी होता है।
यह जो अंतर बताया है, वह वास्तव में पुरुषार्थ और केवल कार्य के बीच की मूलभूत विभाजन रेखा को दर्शाता है।
कार्य, आमतौर पर मैटेरियलिस्टिक होते हैं, जिनका उद्देश्य भौतिक लाभ या देह पोषण तक सीमित होता है। इसके विपरीत, पुरुषार्थ न केवल मैटेरियलिस्टिक लाभ प्रदान करते हैं, बल्कि आध्यात्मिक संतुष्टि और शांति भी प्रदान करते हैं। पुरुषार्थ से उत्पन्न फल व्यक्ति की अंतरात्मा को पोषित करता है, जिससे संतोष और शांति के भाव उत्पन्न होते हैं।
इसके अलावा, पुरुषार्थ से उत्पन्न फल व्यक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि उसके परिवार, समाज, और देश के लिए भी हितकारी होता है। यह एक ऐसी अवधारणा है जो व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान को एक साथ जोड़ती है और एक समग्र विकास की ओर ले जाती है।
'पुरुषार्थ' शब्द का प्रयोग भारतीय दर्शन में मानव जीवन के चार मुख्य उद्देश्यों - धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष - को दर्शाने के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है वे प्रयास जो मनुष्य अपने शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा की संतुष्टि के लिए नीति न्याय और धर्म की सीमा में रहते हुए करता है।
शब्द 'पुरुषार्थ' का उपयोग ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ में हुआ है, जहां 'पुरुष' का अर्थ व्यक्ति या मनुष्य से है, न कि केवल पुरुष लिंग से। इसलिए, 'पुरुषार्थ' शब्द का प्रयोग लिंग विशेष के बजाय मानव जीवन के उद्देश्यों को व्यक्त करने के लिए होता है।
यह सच है कि भाषा और संस्कृति के विकास में कई बार लिंग-आधारित शब्दों का प्रयोग होता है, लेकिन 'पुरुषार्थ' शब्द का प्रयोग सामान्यतः मानव जीवन के उद्देश्यों के संदर्भ में होता है, जो सभी मनुष्यों पर लागू होते हैं, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री। इसलिए, इसे 'स्त्रीषार्थ' के बजाय 'पुरुषार्थ' कहा जाता है।
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