सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

हां, डर लगता है मुझे,

श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय :

 

श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय :

(श्रद्धा का और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय) अर्जुन उवाच ये 

शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥


अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी?


श्रीभगवानुवाच त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु॥


श्री भगवान्‌ बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ''स्वभावजा'' श्रद्धा कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन


सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥.


हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है


यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः। प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥


सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं


अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥


जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं


कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः। मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌॥


जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान


(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद) आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।

 यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥


भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्‌-पृथक्‌ भेद को तू मुझ से सुन


आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥


आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं।) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं


कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥


कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं


यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌। उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌॥


जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है


अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते। यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥


जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है


अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌। इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌॥


परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान


विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌। श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥


शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं


देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥


देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ 'गुरु' शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है


अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते॥


जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम 'यथार्थ भाषण' है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है


मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥


मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है


श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः। अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥


फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं


सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌। क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌॥


जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित ('अनिश्चित फलवाला' उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है


मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः। परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌॥



जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है


दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे। देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌॥


दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल (जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है।) और पात्र के (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न, वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो, उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्‌ ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थों द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं।) प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है


यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः। दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌॥


किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात्‌ मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है


अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते। असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌॥


जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है


(ॐ तत्सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या) ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः। ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ ॐ, तत्‌, सत्‌-ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌॥


इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ॐ' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं


तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः। दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥



तत्‌ अर्थात्‌ 'तत्‌' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार के यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं



सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते। प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥



'सत्‌'- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी 'सत्‌' शब्द का प्रयोग किया जाता है



यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते। कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते॥



तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी 'सत्‌' इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‌-ऐसे कहा जाता है



अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥



हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्‌'- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही


 ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय :

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

The Dynamics of Relationships: Navigating the Interplay Between Emotions and Interests

  In the intricate web of human connections, relationships are often influenced by a delicate balance between emotions and interests. This blog explores the fundamental distinction and advanced defense between the two paradigms: R = E (Relations = Emotions) versus R = I (Relations = Interests).      Basic Definition:   R = E (Relations = Emotions): In this paradigm, relationships are primarily driven by emotional connections. Emotions become the glue that binds individuals together, fostering intimacy, trust, and a shared understanding. These relationships often prioritize the emotional well-being and connection between individuals over external factors.   R = I (Relations = Interests): In contrast, R = I emphasizes relationships built on shared interests and common goals. While emotions are still present, the foundation of the connection lies in mutual hobbies, professional objectives, or common pursuits. These relationships may thrive based on the sati...

Mastering Mind Control How To Control Our Thinking?

Introduction: Controlling your thoughts is a powerful skill that can significantly impact your mental well-being and overall life satisfaction. While it may seem challenging, it's entirely possible with the right strategies and practice. In this blog post, we'll explore practical techniques to help you gain better control over your thoughts. 1.   Mindfulness Meditation:    - Begin your journey by incorporating mindfulness meditation into your daily routine.    - Focus on your breath, bringing your attention back whenever your mind starts to wander.    - Over time, this practice enhances your awareness and helps you observe thoughts without being overwhelmed by them. 2.   Positive Affirmations:    - Replace negative thoughts with positive affirmations.    - Create a list of affirmations that resonate with you, and repeat them regularly to reprogram your mind for positivity. 3.   Cognitive Restructuring: ...

विषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।

  धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।  मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥ धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय उवाच दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।  आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌॥ संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।  व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।  युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥ धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌।  पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः॥ युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌। सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥ इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और...

अपनी आंतरिक क्षमता को खोलें: फर्जी मोटिवेशनल स्पीकरों और उनकी धोखेबाज मोटिवेशन से बचें

  प हले तो बाहर की दुनिया को ही संभालना पड़ता था। पर अब का समय ऐसा आ गया है कि हर कोई मोटिवेशनल स्पीकर बन गया है। हर कोई मोटिवेशन का ज्ञान देने लगा है। इसलिए अभी अपने अंदर की दुनिया यानी सोच और समझ को भी संभालना बहुत आवश्यक हो गया है। मैं कभी बैठता हूं और यह सोचता हूं। उनके लाखों लाखों व्यू है। क्या सच में हम सबको इन मोटिवेशनल स्पीकरों की इनके मोटिवेशन की जरूरत है एक्चुअल में? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह जो मोटिवेशनल स्पीकर है, झूठ बोलते हैं या बनावटी बातें करते हैं, लेकिन उनकी दुनिया उनके लाइफ के चैलेंज हमसे बिल्कुल अलग है। हर इंसान के जीवन का चैलेंज एक दूसरे इंसान से अलग ही होता है। फिर उनके मोटिवेशन हमें कैसे काम लगेंगे। यह समझना जरा मुश्किल है। कहीं इधर-उधर की बात बताकर एक्साइटमेंट उत्पन्न करके यह मोटिवेशनल लोग कहीं धंधा तो नहीं कर रहे हैं। हमारे इमोशन के साथ हमारे मोटिवेशन के साथ हमारे पीस के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रहे हैं। कभी इस पर विचार किया है आपने? क्योंकि मोटिवेशन तो आत्मज्ञान है और आत्मज्ञान के लिए हमें किसी और से ज्ञान लेने की आवश्यकता नहीं है वह हमारे आत्मा में ऑलरेड...

पति पत्नी के जीवन का संघर्ष एक आत्मकथा बस यह एक बात जान लो जीवन भर जाएगा प्रेम, सुख और शांति से।

इस पोस्ट को लिखने का मकसद केवल इतना है, की वैवाहिक जीवन जिसके नायक और नायिका 'पति और पत्नी' मिलकर रहे, सुख और शांति से अपना जीवन जी सके। और अपने वैवाहिक जीवन को सुख शांति और समृद्धि की ऊंचाइयों तक ले जा सके। हां यह संभव है, अगर आपने इस पोस्ट को अच्छे से समझा तो यह हो सकता है।  अक्सर देखने में आया है कि, जब भी पति और पत्नी कुछ देर तक साथ बैठे और बातें करें, बातें करते-करते न जाने ऐसा क्या होता है, जिससे पति या पत्नी दोनों में से कोई एक क्रोधित हो जाता है। और फिर झगड़ा स्टार्ट हो जाते हैं। मैं मानता हूं कि, हम सभी को जीवन में कभी ना कभी प्रेम अवश्य हुआ होगा। कितनों ने अपने प्रेम का इजहार किया होगा और उनमें से कितनों को उनका मनपसंद साथी मिला होगा। कभी आपने विचार किया है, जब आप प्रेमी प्रेमिका की भूमिका में थे, तब आप बहुत देर तक एक साथ बैठकर बातें करते थे तब तो झगड़ा नहीं होते थे। तब तो सुख और आनंद की प्राप्ति होती थी। और हृदय में यह भाव हमेशा चलता रहता था, काश कुछ क्षण और मिल जाए साथ रहने का। पर वही जोड़ा, मैं सब की बात नहीं करता अपवाद होते हैं, पर मेजोरिटी यही है, कि वही जोड़ा जब...

How Do We Shape Children into Ideal Sons? Unraveling Shri Ram's Values for Lasting Impact!

  How Do We Shape Children into Ideal Sons? Unraveling Shri Ram's Values for Lasting Impact! In a world brimming with diverse role models, the timeless values embodied by Shri Ram, the legendary prince of Ayodhya, stand out as a beacon of inspiration. The saga of Ramayana not only narrates the epic tale of righteousness but also encapsulates the essence of being an ideal son. Let's delve into five values exhibited by Shri Ram that not only make him an exemplar but also provide a roadmap for nurturing our children into ideal sons.     1.   Filial Devotion: Shri Ram's profound devotion to his parents, particularly his unwavering respect for his father, King Dasharatha, serves as a cornerstone for building ideal sons. Teaching our children the importance of respecting and cherishing their familial bonds instills a sense of commitment and love that will guide them throughout their lives.     2.    Obedience: In the tumultuous journey of Ram, his ...

जीवन के 7 अंतिम सत्य

हम सभी मृत्यु को जीवन का अंतिम सत्य मानते हैं. क्या आपको पता है मृत्यु के अलावा भी जीवन के छह अंतिम सत्य और है उसके बारे में हम यहां विस्तार से जानेंगे समझेंगे. इस ब्लॉक पोस्ट के माध्यम से जो छूट गए छह जरूरी जीवन के अंतिम सत्य को हम उजागर करेंगे सबके सामने. यह ईश्वर द्वारा निर्धारित किए गए अंतिम सत्य है, इन्हें परिवर्तित नहीं किया जा सकता. १. मृत्यु: मृत्यु जीवन का अटल सत्य है जो इस संसार में आया है उसे अपनी जिम्मेदारियां को निभा कर वापस जाना है. जो इस पृथ्वी पर आया है उसका अपना एक जीवन काल है जीवन काल पूरा कर वापस जाना है. जिसने भी जीवन के इस अंतिम सत्य को समझा है, वह अपने जीवन में सत्य कर्मों द्वारा अपने परलोक को सुधारता है, और अपने जीवन को मानव कल्याण समाज कल्याण के लिए लगता है. यह सत्य एक कठोर सबक सिखाती है जो भी कुछ अपने अर्जित किया हो, इस पृथ्वी पर वह सब यहीं रह जाएगा. आप कुछ भी अपने साथ लेकर नहीं जा पाएंगे, जिस तरह जन्म के समय आए थे खाली हाथ उसी तरह मृत्यु के साथ जाएंगे खाली हाथ. २. परिवर्तन: यह भी एक अटल सत्य है. जो आज जैसा है कल वैसा नहीं रहेगा. हर समय, हर घड़ी, हर छन जो भ...

सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः

 ( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )  संजय उवाच  तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥ संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा श्रीभगवानुवाच  कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा अर्जुन उवाच  कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के...

बुद्धि के प्रकार: क्या आप जानते हैं आपकी बुद्धि कौन से प्रकार की है

सुबह से शाम तक हम कई लोगों से मिलते हैं, उनसे बातें करते हैं. और उनकी बुद्धि के प्रशंसा भी करते हैं, यह विचार करते हुए की उनकी बुद्धि कितनी उत्तीर्ण है कितनी सक्षम है. और कुछ लोगों  के बारे में हमारा कुछ अलग विचार भी होता है. क्या आपको पता है बुद्धि कितने प्रकार की होती है नहीं तो चलिए मैं बताता हूं, आपको की बुद्धि के प्रकार कितने होते हैं. और वह बुद्धि कार्य कैसे करती है. बुद्धि के पांच प्रकार होते हैं जिनका उपयॏग करके इंसान निश्चय लेता है. उन निश्चय का मकसद डिपेंड करता है, कि वह निश्चय कौन सी बुद्धि द्वारा लिया गया है. तो हमारा जानना बहुत आवश्यक हो जाता है की बुद्धि के वह पांचो प्रकार कौन-कौन से हैं, और वह कार्य कैसे करते हैं. १. कपट्टी बुद्धि: जिस भी इंसान के पास यह बुद्धि होती है, वह इंसान इस बुद्धि द्वारा केवल और केवल दूसरों को हानि पहुंचाता है. इस बुद्धि के उपयोग से इंसान केवल दूसरों के साथ छल करने धोखा देने का काम करता है. इस तरह की बुद्धि वाले इंसान कपट कर दूसरों का धन हरपने का प्रयास करते हैं. इस तरह के इंसान दूसरों के साथ छल कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं. ...

सही फैसला लेने की टेक्निक!

        सु बह की शुरुआत होने से रात का अंत होने तक हम अपने जीवन के कई फैसले लेते हैं जिनमें से कई फैसले ऐसे होते हैं जिन्हें आत्मग्लानि यानी पछतावा होता है। जाने अनजाने में हम कई ऐसे फैसले कर जाते हैं जो सही नहीं होते हैं। हमारे लिए हमारी आत्मा की शांति के लिए। जाने अनजाने में किया गलत फैसला उठाई गलत कदम की वजह से हमारी आत्मा बेचैन हो उठती है। जीवन के लिए पीस आत्मा की शांति एक अहम हिस्सा है जीवन को संतुलित रखने के लिए। हम सभी का जीवन संतुलित रहे और जीवन का संतुलन बना रहे इसलिए मैंने कुछ सात्विक ट्रिक का निर्माण किया है जो मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूं।       चर्चा को आगे बढ़ाते हैं और लिए जानते हैं उन सात्विक स्ट्रिप्स एंड ट्रिक्स के बारे में जो हमें गलत फैसला करने से रोक देंगे। और हमें प्रदान करेगी आत्मीय सुख का! पारिवारिक फैसले!      अपने जीवन में कोई भी फैसला लो, या फैसले का निर्माण करो तो इस बात का बखूबी ध्यान रखो, कि वह फैसला आपका पारिवारिक जिम्मेदारियां के अनुकूल होने चाहिए।      किसी भी फैसले को उत्तेजित होकर या ...