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मिल गया वह कारण, जो लगता तो अच्छा है, पर हमारे विनाश का कारण है।
आपको पता है कभी लगता है जीवन एक पुस्तक की तरह है। कभी लगता है, जीवन एक शिक्षक की तरह है। क्योंकि हर समय, हर घड़ी, यह कुछ ना कुछ ऐसी नया सीखाती है, नवीनता का बोध कराती है। और ऐसी चीज समझाती है। जिसे देखकर, सोच कर समझ कर आश्चर्य चकित रह जाता हूं।
जीवन वास्तव में एक पुस्तक की तरह है जिसमें हर अध्याय नई कहानियाँ और सबक लेकर आता है। और एक शिक्षक की तरह, जीवन हमें अनुभवों के माध्यम से सिखाता है, जिससे हम बढ़ते और विकसित होते हैं। यह अनुभव हमें विभिन्न भावनाओं से गुजरने का मौका देते हैं, जैसे कि आश्चर्य, खुशी, दुःख, और भी बहुत कुछ।
आज मैंने अपने जीवन से सीखा अभिमान द्वेष, घृणा, क्रोध का मूल कारण क्या है। वह कौन सी चीज है, जो इन्हें पोषित करती है। और हमारे अंदर इन्हें जीवित रखती है। मैंने आज इसे जाना और समझा।
अभिमान, द्वेष, घृणा, क्रोध आध्यात्मिक तौर पर इनका एक ही कारण है, श्रेष्ठता का भाव, खुद को दूसरों से ऊपर या श्रेष्ठ समझने का भाव। इन सारे विकारों को उत्पन्न करता है, पोषित करता है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, अभिमान, द्वेष, घृणा, और क्रोध का मूल कारण अक्सर अहंकार या श्रेष्ठता का भाव होता है। यह भावना हमें दूसरों से अलग और ऊपर मानने की ओर प्रेरित करती है, जिससे विकार उत्पन्न होते हैं।
आध्यात्मिक परंपराएँ अक्सर हमें सिखाती हैं कि सभी प्राणियों में एकता और समानता होती है। जब हम इस एकता को पहचानते हैं और अपने अहंकार को त्यागते हैं, तब हम इन नकारात्मक भावनाओं से मुक्त हो सकते हैं। यह एकता का भाव हमें अधिक सहानुभूति और करुणा की ओर ले जाता है, और हमें अपने अंदर और बाहर की दुनिया में शांति की खोज में मदद करता है।
अगर हकीकत तौर पर देखें तो, कोई किसी से बड़ा छोटा नहीं है। सब एक समान है। जो गुण, पद या कोई भी उपलब्धि आपके पास है। उसकी वजह से आप अपने आप को श्रेष्ठ समझ रहे हैं, तो यह आपकी भूल है। क्योंकि हर व्यक्ति किसी न किसी कार्य क्षेत्र में श्रेष्ठ होता ही है। हां यह मान सकते हैं, देश, काल, समय और परिस्थितियों भिन्न यानी विपरीत हो सकती है, उन परिस्थितियों की वजह से अगर आप खुद को श्रेष्ठता के भाव के दलदल में ले जा रहे हैं, तो यह एक अनुचित और विनाशकारी निर्णय होगा।
हर व्यक्ति में कुछ न कुछ विशेषता होती है, और हर कोई अपने तरीके से योगदान देता है। जब हम इस सत्य को स्वीकार करते हैं, तो हम अहंकार और श्रेष्ठता के भाव से मुक्त हो सकते हैं।
व्यक्ति को अपनी उपलब्धियों पर गर्व तो हो सकता है, लेकिन उसे इसे अहंकार में नहीं बदलना चाहिए। वास्तविकता में, हम सभी एक ही जीवन के यात्री हैं, और हमारी अपनी-अपनी यात्राएँ हैं। यह यात्रा हमें विभिन्न पथों पर ले जाती है, लेकिन हम सभी का लक्ष्य समान होता है आत्म-साक्षात्कार और शांति।
सच्ची श्रेष्ठता क्या है? जब हम इस भाव को समझते हैं, तब हम हर उस दूसरे व्यक्ति को, उनके भावों को समझने लायक हो जाता है। हम में या कह सकते हैं सच्ची श्रेष्ठ के भाव को समझने वाले व्यक्ति में, दूसरों को समझने की योग्यता विकसित हो जाती।
जब हम श्रेष्ठता के भाव को पहचानते हैं और उसे दूर करते हैं, तब हम दूसरों के भावों को बेहतर समझने लगते हैं। यह समझ एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और समझदारी को बढ़ाती है, जिससे हमारे रिश्ते और भी मजबूत होते हैं।
इस तरह की योग्यता विकसित करना आध्यात्मिक विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब हम अपने अहंकार को छोड़ देते हैं और दूसरों को उनके अनुभवों और भावों के लिए समझने लगते हैं, तो हम एक दूसरे के साथ अधिक गहराई से जुड़ सकते हैं।
अहंकार क्या है?, श्रेष्ठता का भाव है।
बंधन क्या है?, दूसरों से खुद को श्रेष्ठ समझना ही बंधन है।
अज्ञानता क्या है?, खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझना ही अज्ञानता है।
रिश्तो में दरार कौन उत्पन्न करता है?, श्रेष्ठता का भाव।
रिश्तो के असफल होने का कारण क्या?, श्रेष्ठता का भाव।
वह कौन है जो प्रेम को स्वीकार नहीं करने देता?, श्रेष्ठता का भाव।
वह कौन है जो हमें दूसरों से घृणा करने के लिए मजबूर करता है?, श्रेष्ठता का भाव।
वह क्या है जो हमें सब कुछ प्राप्त कर लेने के बावजूद भी अंतरात्मा की शांति को प्राप्त नहीं होने देता?, श्रेष्ठता का भाव।
वह क्या है जो हमें नैतिक मूल्यों के साथ समझौता करने पर मजबूर करता है? श्रेष्ठता का भाव।
वह क्या है जो सच में बहुत बुरा है पर हमें सबसे ज्यादा प्रिय है?, श्रेष्ठता का भाव।
यह व्यक्ति के भीतर का वह भाव है जो उसे अपने आप को दूसरों से अलग और श्रेष्ठ मानने की ओर प्रेरित करता है। यह अक्सर आत्म-मुग्धता और आत्म-केंद्रितता का कारण बनता है।
यह वह स्थिति है जब व्यक्ति अपने अहंकार के कारण आत्मिक विकास से रुक जाता है और दूसरों के साथ सच्चे संबंध बनाने में असमर्थ होता है।
यह वह स्थिति है जब व्यक्ति अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है और इस प्रक्रिया में वह जीवन के सच्चे ज्ञान और समझ से वंचित रह जाता है।
श्रेष्ठता का भाव अक्सर रिश्तों में दरार उत्पन्न करता है क्योंकि यह व्यक्ति को दूसरों के प्रति सहानुभूति और समझदारी से दूर कर देता है।
श्रेष्ठता का भाव रिश्तों के असफल होने का एक प्रमुख कारण है क्योंकि यह व्यक्ति को दूसरों की भावनाओं और जरूरतों को समझने से रोकता है।
श्रेष्ठता का भाव व्यक्ति को प्रेम को स्वीकार करने से रोकता है क्योंकि यह उसे दूसरों के प्रति खुले दिल और मन से जुड़ने से रोकता है।
श्रेष्ठता का भाव व्यक्ति को दूसरों से घृणा करने के लिए मजबूर करता है क्योंकि यह उसे दूसरों की अच्छाइयों को देखने से रोकता है।
श्रेष्ठता का भाव व्यक्ति को अंतरात्मा की शांति प्राप्त करने से रोकता है क्योंकि यह उसे आत्म-संतुष्टि और आत्म-समर्पण से दूर रखता है।
श्रेष्ठता का भाव व्यक्ति को नैतिक मूल्यों के साथ समझौता करने पर मजबूर करता है क्योंकि यह उसे अपने आप को दूसरों से ऊपर मानने की ओर प्रेरित करता है।
श्रेष्ठता का भाव अक्सर व्यक्ति को प्रिय लगता है क्योंकि यह उसे अस्थायी रूप से शक्ति और आत्म-महत्व का अनुभव कराता है, परंतु यह वास्तव में बहुत बुरा है क्योंकि यह उसे आत्मिक विकास और सच्चे सुख से दूर रखता है।
वह कौन लोग हैं, जिनमें श्रेष्ठता का भाव होता है। वह वो लोग है, जो असरेष्ठ है, उनमे अज्ञानता के कारण श्रेष्ठता का भाव उत्पन्न हो गया है। वह कौन लोग है, जिनमें श्रेष्ठता का भाव नहीं होता। वह वो लोग हैं, जो सच में श्रेष्ठ है। जैसे भगवान श्री राम, भगवान श्री कृष्णा, महात्मा गौतम बुद्ध।
अक्सर वे लोग जिनमें श्रेष्ठता का भाव होता है, वे अपनी असुरक्षा और अज्ञानता के कारण ऐसा महसूस करते हैं। वे अपनी कमियों को छिपाने या अपनी आत्म-मूल्य को बढ़ाने के लिए दूसरों पर श्रेष्ठता जताने का प्रयास करते हैं।
दूसरी ओर, वे लोग जिनमें श्रेष्ठता का भाव नहीं होता, वे अक्सर सच में श्रेष्ठ होते हैं। आपने जिन महान व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है, जैसे भगवान श्री राम, भगवान श्री कृष्णा, महात्मा गौतम बुद्ध, उन्होंने अपने जीवन और शिक्षाओं के माध्यम से विनम्रता, करुणा और समानता का प्रदर्शन किया। उनकी महानता उनके आचरण और उनके द्वारा दिए गए ज्ञान में निहित है, न कि केवल उनके पद या उपलब्धियों में।
यह समझना कि श्रेष्ठता का भाव वास्तव में एक बंधन है जो हमें आत्मिक विकास से रोकता है, यह आध्यात्मिक जागरूकता की ओर एक कदम है। जब हम इस भाव को त्याग देते हैं, तब हम अपने आप को और दूसरों को एक नई रोशनी में देखने लगते हैं।
सच्चा श्रेष्ठता वह है जो विनम्रता में निहित होती है। जब कोई व्यक्ति खुद को श्रेष्ठ मानने के भाव से मुक्त होता है, तब वह सच में श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। यह विनम्रता और आत्म-ज्ञान की गहराई को दर्शाता है।
दूसरी ओर, जो लोग श्रेष्ठ होने का भाव रखते हैं, वे अक्सर अपनी असुरक्षा और अज्ञानता को छिपाने के लिए ऐसा करते हैं। यह भावना उन्हें आत्मिक विकास से दूर रखती है और उन्हें अपने और दूसरों के साथ सच्चे संबंध बनाने से रोकती है।
सच्चा श्रेष्ठ कौन है? वह कौन है जो सच में श्रेष्ठ है?
सच्चा श्रेष्ठ वह है, जो सच में श्रेष्ठ है। जिसमें श्रेष्ठता होने की पूरी योग्यता है, पर उसके अंदर श्रेष्ठता का भाव नहीं है, श्रेष्ठ होने का अहंकार नहीं है। जो योग्य तो है, पर उसमें योग्यता यानी श्रेष्ठता का भाव नहीं है। वह कभी भी अपने मुख से अपनी श्रेष्ठता का बखान नहीं करता। उसकी योग्यता उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण देता है। उदाहरण के तौर पर आप श्री राम भगवान, श्री कृष्णा, महात्मा गौतम बुद्ध ।
सच्चा श्रेष्ठ वह होता है जिसकी श्रेष्ठता उसके गुणों, कर्मों, और ज्ञान से स्वतः सिद्ध होती है, न कि उसके द्वारा इसका दावा करने से। ऐसे व्यक्ति में अहंकार का अभाव होता है और वह अपनी योग्यताओं का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करता है।
सच्चा श्रेष्ठ वह है जो अपने अहंकार को त्याग देता है और सभी प्राणियों के साथ समानता और एकता की भावना को अपनाता है। वह जो निरंतर आत्म-सुधार और आत्म-ज्ञान की खोज में लगा रहता है, और जो अपने आचरण से दूसरों के लिए एक उदाहरण स्थापित करता है।
इस तरह की श्रेष्ठता व्यक्तिगत गुणों और आध्यात्मिक जागरूकता में निहित होती है, न कि केवल बाहरी सफलता में। यह विचार विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं में भी पाया जाता है, जहाँ श्रेष्ठता को आत्म-सेवा, त्याग, और दूसरों के प्रति प्रेम के रूप में देखा जाता है।
इस तरह की श्रेष्ठता व्यक्तिगत गुणों और आध्यात्मिक जागरूकता में निहित होती है, और यह व्यक्ति को न केवल अपने लिए बल्कि समाज के लिए भी एक आदर्श बनाती है।
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